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07:00, 11 अगस्त 2023 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=अमीता परशुराम मीता
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ये आरज़ू है कि अब कोई आरज़ू न रहे
किसी सफ़र किसी मंज़िल की जुस्तजू1 न रहे
अजीब दिल है, इसी दिल का अब तक़ाज़ा है
किसी भी बज़्म में अब उसकी गुफ़्तगू न रहे
मज़ा तभी है मोहब्बत में Garq2 होने का
मैं ढूब जाऊँ तो ये हो, कि तू भी तू न रहे
बताओ उनकी इबादत क़बूल क्या होगी
नमाज-ए-इश्क़ में जो लोग बा-वुज़ू3 न रहे
ख़ुदा बना दिया उनको मेरी मोहब्बत ने
हमेशा दिल में रहे और रू-ब-रू4 न रहे
1. खोज 2. ढूबना हुआ 3. नमाज़ पढ़ने के लिये हाथ मुँह धोना 4. आमने-सामने
</poem>