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07:03, 11 अगस्त 2023 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=अमीता परशुराम मीता
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मेरे जज़्बात-ओ-ख़यालात तू समझा कब था
हमसफ़र यूँ तो रहा, रूह में उतरा कब था
खींच लाया तुझे अहसास-ए- तहफ़ुज़्ज़1 मुझ तक
हमसफ़र होने का तेरा भी इरादा कब था
मौज-दर-मौज भँवर खींच रहा था मुझको
मेरी कश्ती के लिये कोई किनारा कब था
ज़ाहिरन2 साथ वो मेरे था मगर आँखों से
बदगुमानी के नक़ाबों को उतारा कब था
तुझको मालूम नहीं अपनी वफ़ाओं का सिला
जान-ए-जाँ मैंने जो चाहा था ज़ियादा कब था
दो किनारों को मिलाया था फ़क़त लहरों ने
हम अगर उसके न थे वो भी हमारा कब था
उसने मेरी ही रफा़क़त3 को बनाया मुल्ज़िम
मैं अगर भीड़ में थी वो भी अकेला कब था
वो तेरा अहद-ए-वफ़ा4 याद है अब तक ‘मीता’
भूल बैठी हूँ मोहब्बत का ज़माना कब था
1. सुरक्षा की भावना 2. दिखने में 3. दोस्ती 4. वफ़ादारी का वादा
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