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न्यायदंड / कुमार मुकुल

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|रचनाकार=कुमार मुकुल
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हम हमेशा शहरों में रहे<br>
और गांवों की बावत सोचा किया<br>
कभी मौका निकाल<br>
गांव गए छुटि्टयों में<br>
तो हमारी सोच को विस्तार मिला<br>
पर मजबूरियां बराबर<br>
हमें शहरों से बांधे रहीं<br><br>
ये शहर थे<br>
जो गांवों से बेजार थे<br>
गांव बाजार<br>
जिसके सीवानों पर<br>
आ-आकर दम तोड़ देता था<br>
जहां नदियां थीं<br>
जो नदी घाटी परियोजनाओं में<br>
बंधने से<br>
बराबर इंकार करती थीं<br>
वहां पहाड़ थे<br>
जो नक्सलवादियों के पनाहगाह थे<br><br>
 
गांव<br>
जहां देश (देशज) शब्द का<br>
जन्म हुआ था<br>
जहां के लोग<br>
यूं तो भोले थे<br>
पर बाज-बखत <br>
भालों में तब्दील हो जाते थे<br>
गांव, जहां केन्द्रीय राजनीति की<br>
गर्भनाल जुड़ी थी<br>
जो थोड़ा लिखकर<br>
ज्यादा समझने की मांग-करते थे<br><br>
 
पर शहर था<br>
कि इस तरह सोचने पर<br>
हमेशा उसे एतराज रहा<br>
कि ऐसे उसका तिलस्म टूटता था<br>
वहां ऊचाइयां थीं<br>
चकाचौंध थी<br>
भागम-भाग थी<br>
पर टिकना नहीं था कहीं<br>
टिककर सोचना नहीं था<br>
स्वावलंबन नहीं था वहां<br>
हां, स्वतन्त्रता थी<br>
पर सोचने की नहीं<br><br>
 
बाधाएं<br>
बहुत थीं वहां<br>
इसीलिए स्वतन्त्रता थी<br>
एक मूल्य की तरह<br>
जिसे बराबर<br>
आपको प्राप्त करना होता था<br>
ईमान कम था<br>
पर ईमानदारी थी<br>
जिस पर ऑफिसरों का कब्जा था<br>
जिधर झांकते भी<br>
कांपते थे<br>
दो टके के चपरासी<br><br>
 
वहां न्यायालय थे<br>
और थे जानकार बीहड़-बीहड़<br>
न्याय प्रक्रिया के<br>
शहर से झगड़ा सुलझाने<br>
सब वहीं आते थे<br>
और अपनी जर-जमीन गंवा<br>
पाते थे न्याय<br><br>
 
न्याय<br>
जो बहुतों को<br>
मजबूर कर देता<br>
कि वे अपना गांव छोड़<br>
शहर के सीमांतों पर बस जाएं<br>
और सेवा करें<br>
न्यायविदों के इस शहर की<br>
पर ऐसा करते<br>
वे नहीं जान रहे होते थे<br>
कि जहां वे बस रहे हैं<br>
वह जमीन न्याय की है<br>
और प्रकारांतर से अन्याय था यह<br>
और उन्हें कभी भी बेदखल कर<br>
दंडित किया जा सकता था<br>
और तब<br>
जबकि उनके पास<br>
कोई जमापूंजी नहीं होती थी<br>
उनके लिए न्याय भी नहीं होता था<br><br>
 
हां, न्याय के पास<br>
दया होती थी थोड़ी<br>
और दृष्टि भी<br>
जिससे उनका इस तरह बसना वह<br>
लंबे समय तक अनदेखा करता था<br>
बदले में थोड़ा सा श्रम<br>
करना होता था उन्हें<br>
जिससे न्यायालय तक जाने का रास्ता<br>
चौड़ा और पक्का होता जाता था<br>
और न्याय प्रक्रिया के<br>
अलंबरदारों के लिए<br>
रेस्तरां-भवन-दफ्तर<br>
तैयार होते जाते थे<br><br>
 
अब उन आलीशान भवनों से<br>
न्याय की तेज रफ्तार सफेद गाडि़यां<br>
जब भागती थीं सड़कों पर<br>
और अपने सीमांतो का<br>
मुआयना करती थीं<br>
तो वहां बसे वाशिन्दे<br>
उन्हें धब्बों की तरह लगते थे<br>
जिन्हें मिटाने की ताकीद वे<br>
पुलिस-प्रशासन से करते<br>
और लगे हाथ उसकी<br>
मुनादी भी कर दी जाती थी<br>
इस तरह<br>
न्यायपूर्ण शहरों की सीमाएं<br>
बार-बार उजाड़कर<br>
पीछे धकेल दी जाती थीं<br>
और बार-बार<br>
न्याय की दया दृष्टि उन्हें आगे<br>
नए सीमांतों पर टिकने की<br>
मोहलत देती थी<br><br>
 
शहर की जो न्याय प्रक्रिया थी<br>
उसमें भी<br>
सोचने-समझने की मनाही थी<br>
इसीलिए आधी सदी से वे<br>
नहीं सोच पा रहे थे<br>
कि हिन्दोस्तां के<br>
इन गर्म इलाकों में<br><br>
 
सालों क्यूंकर<br>
गर्म काला चोगा उठाए फिरते हैं<br>
कि क्यों हिन्दी-उर्दू-तेलुगू-तमिल की<br>
इस जमीन पर<br>
अंग्रेजी-फारसी-संस्कृत<br>
डटाए फिरते हैं<br><br>
 
जैसे-शहर<br>
एक तिलस्म की तरह था<br>
उसकी न्याय प्रक्रिया भी<br>
एक मिथक की तरह थी<br>
और एक मिथक यह था<br>
कि सोचने-विचारने के मामले में<br>
अन्धी है वह<br>
और जब-तक उसके कान के पास आकर<br>
कोई अपनी फरियाद नहीं दुहराता<br>
उसे कुछ मालूम नहीं पड़ता<br>
इसके लिए उसके पास<br>
ऊंची आवाज में विचरने वाले<br>
हरकारे थे<br>
जो सीमांत के बाशिंदों से<br>
लंगड़ा संवाद बना पाते थे<br>
ये हरकारे<br>
न्यायप्रियता के ऐसे कायल थे<br>
कि मुनादी के वक्त<br>
आंखे मूंदकर<br>
उसके आदेशों को प्रचारित करते थे<br>
न्याय प्रक्रिया के<br>
इस दोहरे अन्धेपन का लाभ<br>
सीमान्त की डंवाडोल जमीन के<br>
बाशिन्दे लेते थे<br>
और उनकी खुसुर-पुसुर देखते-देखते<br>
विचारधाराओं का रूप ले लेती थीं<br>
और जब तक वे<br>
अन्धे कानून को छू नहीं लेती थीं<br>
उसे इसका इल्म तक नहीं होता था<br>
कि उसकी नाक के नीचे<br>
कैसी-कैसी विचारधाराओं ने <br>
अपने तम्बू डाल रखे हैं<br>
ऐसे में परेशान न्यायदंड<br>
तुरत-फुरत<br>
अपनी धाराओं की सेवाएं लेता था<br>
मजेदार बात यह थी<br>
कि न विचारधारा साफ दिखती थी<br>
न धारा<br>
स्थिति की गम्भीरता का पता<br>
तब चलता था<br>
जब दोनों टकराती थीं<br>
और उसकी आवाज<br>
न्याय के ऊंचे दंडों तक जाती थी<br><br>
 
अब एक बार फिर<br>
वही पुराना न्याय<br>
दुहराया जाता था<br>
जिसमें अच्छी कीमत अदाकर<br>
विचारधाराओं को<br>
थोड़ी मोहलत दी जाती थी<br>
कि वे अपना तेवर सुधार सकें<br><br>
 
न्यायदंड के आस-पास<br>
उसकी सहूलियत के<br>
सारे साजो-सामान भी थे<br>
यथा जेलें थीं<br>
आदर्श कारागृह<br>
वहां बुद्ध की<br>
ऊंची पत्थर की मूर्ति थी<br>
क्योंकि वहीं वह सुरक्षित थी<br>
और कारागृह के निवासियों को<br>
उसकी छाया में शान्ति मिलती थी<br>
जो मोबाइल-चैनल्स-सुरा-सुन्दरी<br>
और मनोरम उत्तर-आधुनिक अपराधों का<br>
सेवन करते<br>
वहीं टेक लेते<br>
बिरहा और चैता का गायन सुनते<br>
लोकगीतों के रसिक सीएम, पीएम<br>
अपने काफिलों के साथ<br>
महीनों वहीं छुट्टियाँ मनाते थे<br>
इसके लिए उन्हें न्यायदंड की<br>
धाराओं की<br>
सेवाएं लेनी पड़ती थीं<br>
फिर जेलों से बाहर आते ही वे<br>
जेल प्रशासन की मुस्तैदी की<br>
समीक्षा करते थे<br>
कारागृहों का यह रूप देखकर<br>
उत्तर रामकथा वाचकों का मन भी<br>
विचलित हो जाता था<br>
और धन-बल-पशुओं को<br>
गीता का उपदेश देने<br>
वे भी वहां जा धमकते थे<br><br><br>
 
न्यायदंड के आस-पास<br>
बिखरे हुए थाने थे<br>
जो पूंजी-प्रसूतों को रास आते थे<br>
बावजूद इसके ये थाने<br>
ढहती लोककला के अद्भुत नमूने थे<br>
जिसकी दीवार के पलस्तर के भीतर से<br>
लाल ईंटें<br>
अपना बुरादा झारती रहती थीं<br>
और रात में जिन्हें<br>
लालटेन की नीम रोशनी रास आती थी<br>
न्यायदंड की सुरक्षा के लिए तैनात<br>
ये थाने थे<br>
जिनकी जीपें <br>
जनता के उस खास वर्ग की<br>
सेवा में जाती थीं<br>
जो कि उसमें पेट्रोल भरा पाती थीं<br>
जहां वैसी मुट्ठी गर्म करने वाली<br>
जनता नहीं थी<br>
वहां पुलिस भी नहीं थी<br>
इसीलिए विकल्प की तरह वहां<br>
आतंकवादी थे<br><br>
 
राजभाषा के सारे कवि<br>
न्यायदंड के पास ही निवास करते थे<br>
अपनी अटारियों से वे<br>
पृथ्वी-पृथ्वी चिल्लाते थे<br>
पर पृथ्वी से उनका साबका इतना ही था<br>
जितनी कि उनके गमलों में मिट्टी थी<br>
जिसे सुबह-शाम पानी देते<br>
वे निहारते थे हसरत से<br><br>
 
ये कवि थे<br>
और काले बादलों को देख<br>
इनका खून<br>
भय से सफेद पड़ जाता था<br>
ये कवि थे जो न्यायदंड से<br>
अपना प्रेमपत्र बचाने की<br>
याचना किया करते थे<br><br>
 
और न्यायदंड प्रेमपत्र तो नहीं<br>
उन कवियों को जरूर बचा लेता था<br><br>
 
वह उन्हें कीमती जूते प्रदान करता था<br>
जो न्यायदंड को देखते ही<br>
खुशी से मचमचाने लगते थे<br>
वह उनकी कमरों को<br>
बल (लोच) प्रदान करता था<br>
जिस पर कलाबाजी खाते वे<br>
विचारों को<br>
महामारी की तरह देखते थे<br>
और खुद को उससे बचाने की जुगत<br>
भिड़ाते रहते थे<br>
इनका एक काम<br>
जनता की कारगुजारियों से<br>
न्यायदंड को आगाह करना भी था<br><br>
 
इन शहरों में<br>
सार्वभौम कला की तरह<br>
तोंदें थीं<br>
जिसके हिसाब से मोटर कम्पनियां<br>
अपनी डिजाइनें बदलती रहती थीं<br>
नतीजतन सड़कों पर<br>
डब्बे की शक्लवाली<br>
बूमों-मन्तरों-काटिज आदि गाडियाँ<br>
बढ़ती जा रही थीं<br>
यहां अपहरण और नरसंहार<br>
एक उद्योग था<br>
जिसकी रिर्पोटिंग को<br>
पत्रकारिता कहते थे<br>
और पत्रकार खबरें नहीं लिखते थे<br>
विवस्‍त्र रक्तिम लाशें गींजते थे<br>
उनकी जातियों का हिसाब लगाते थे<br>
और जनता सुर्खियों में तब आती थी<br>
जब वह गोलबन्द हो<br>
रैलियों में हिस्सा लेने आ धमकती थी<br>
राजनेताओं के बाद प्रेस<br>
चििड़याखानों के जीवों की<br>
गतिविधि बताना<br>
ज्यादा जरूरी समझते थे<br>
क्योंकि उसका नगर के पर्यावरण पर<br>
सीधा असर पड़ता था<br><br>
 
बन्दूक पर निशाना साधते-साधते<br>
हत्यारों-अपहत्ताओं और <br>
निजी सेनाओं के स्त्री-शिशु संहारकों की<br>
एक आंख कमजोर हो गई थी<br>
इसीलिए मीडिया में जब भी<br>
उसकी तस्वीर उभरती थी<br>
तो उसकी एक आंख और आधा चेहरा<br>
गमछे से ढंका होता था<br><br>
 
इस बारे में लोगों के<br>
जुदा-जुदा खयालात थे<br>
कि ऐसा वे पहचाने जाने के<br>
भय से करते थे<br>
पर जनमत की राय यह थी कि<br>
खौफ को सार्वजनिक करने के लिए<br>
वे ऐसा करते थे<br><br>
 
बुद्ध के बाद गांधी<br>
हत्यारों की पहली पसन्द थे<br>
मीडिया पर इश्तेहारों में<br>
हिंसा को वे मजबूरी बतलाते<br>
और मीडियाकर (दलाल) उनमें<br>
गांधी की अकूत सम्भावनाएं तलाशते<br>
थकते नहीं थे !
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