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|रचनाकार=जगदीश व्योम}}
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<poem>
सारी रात
महक बिखराकर
हरसिंगार झरे।
सहमी दूब
बाँस गुमसुम है
कोंपल डरी-डरी
बूढ़े बरगद की
आँखों में
खामोशी पसरी
बैठा दिए गए
जाने क्यों
गंधों पर पहरे
हरसिंगार झरे।
वीरानापन
और बढ़ गया
जंगल देह हुई
हरिणी की
चंचल-चितवन में
भय की छुईमुई
टोने की ज़द से
अब आखिर
बाहर कौन करे
हरसिंगार झरे।
सघन गंध
फैलाने वाला
व्याकुल है महुआ
त्रिपिटक बाँच रहा
सदियों से
पीपल मौन हुआ
चीवर पाने की
आशा में
कितने युग ठहरे
हरसिंगार झरे।
-डॅा. जगदीश व्योम
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