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09:53, 3 दिसम्बर 2023 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=राम सेंगर
|अनुवादक=
|संग्रह=रेत की व्यथा-कथा / राम सेंगर
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<poem>
है गलाव की ठण्ड
खिंची रौनक गरमाई की ।
हाड़-गोड़ ठिर गए
भरक उड़ गई रजाई की ।
कैसी-कैसी यादें कूकें
इस उजाड़ मन में ।
प्राणवती हो व्यापीं
ख़ाली घर के कण-कण में ।
जगह न कोई शेष बची है
धरा-उठाई की ।
एक किटकिटी-सी दाँतों में
बजती रुक-रुक कर ।
यह आवाज़ कहाँ से आती
देखें झुक-झुक कर ।
कान बजें, देती न सुनाई
धुन तनहाई की ।
बीज सृजन के जिन्हें
ऐशगाहों में पड़े मिले ।
बड़भागे हैं,उन्हें सेंत के
मिल तो गए सिले ।
बीती यहाँ, साधने में ही
लय चौपाई की ।
</poem>