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15:01, 12 दिसम्बर 2023 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=हरीशचन्द्र पाण्डे
|अनुवादक=
|संग्रह=
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<poem>
दूर-दूर तक नहीं दिखता कोई भी बच्चा
यह कैसा समय है
घास दिख रही है लम्बी-लम्बी
तारे दिख रहे हैं और भी साफ़
गहरे पानी में मछलियाँ दिख रही हैं
दूरस्थ हिमालय की चोटियाँ भी दिखने लगी हैं
पर बच्चे नहीं दिख रहे हैं
बच्चे ही तो थे मेरा सूर्योदय
मैं एक, ध्रुवीय सूर्यास्त में पड़ा हुआ हूँ
अपने-अपने घरों से निकले फूल से ये बच्चे
मुझे एक फुलवारी बना देते थे
हाफ़टाइम में जब खुलते इनके टिफिन
ख़ुशबुओं से मेरा प्रांगण पट जाता
और अहाते का आकाश पक्षियों से ।
आओ बच्चो ! बहुत उदास हूँ मैं
मैं जो समय को घण्टा बनाकर ऊँचाई पर टाँक देता था
मैं जो छोटी-छोटी ग़ैरहाज़िरी पर तुम्हें मुर्ग़ा बना देता था
अब इस लम्बी ग़ैरहाज़िरी पर तुम्हें याद कर रहा हूँ बेतरह
मैं कहाँ से लाऊँ वह रजिस्टर
जिसमें सारे के सारे बच्चे एक साथ अनुपस्थित दर्ज़ किए जा सकें
कैसे पूछूँ वह कारण
जिससे पूरी कायनात वाबस्ता है ।
देखो, इतनी बारिश हुई, पर एक भी रेनीडे नहीं हुआ
एक दिन की छुट्टी में कितना झूम उठते थे तुम
अब इतनी छुट्टियाँ हैं और तुम
बिना पानी के पौधे की तरह मुरझा रहे हो
आओ बच्चो ! आओ !
फिर शरारत करो उधम मचाओ
तुम्हारे परस्पर दाँत गड़ाने के साँचे मेरी यादों में नत्थी हैं अभी भी
गिरकर उठने की धूल झाड़ती सरपट मुद्राएँ भी
आओ कि झाड़ू ख़ुद गन्दे हो गए हैं
रोशनदानों में मकड़ियों ने जालीदार पर्दे टाँक दिए हैं
मैं तुम्हारी दृष्य-नींव हूँ, बच्चो ! आओ !
दूसरों की सुनना और अपनी कहना सीखो
आओ कि नेटवर्क की पहुँच के बाहर है एक बहुत बड़ी दुनिया
जहाँ बच्चों के लिए दुधारु जानवरों को बेचकर स्मार्टफ़ोन ख़रीदे जा रहे हैं
आओ बच्चो ! आओ !
फिर से लाओ ब्लैकबोर्डों वाले उजले दिन ।
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