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|रचनाकार=हरीशचन्द्र पाण्डे
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<poem>
खड्ग वज़नी रहे
भरपूर वार के लिए उन्हें हाथों का सँयुक्त बल चाहिए था
भाले कहते हमें एक अपेक्षित दूरी चाहिए
हाथी-घोड़े सी ऊँचाई भी
गुप्ती छल में इस्तेमाल होती रही
ख़ासकर गले मिलते हुए
चाकू चिरकुट रहा
गेाद-गोदकर मारने में असफल प्रयास की बड़ी प्रतिशतता लिए हुए

बस, तलवार ही थी
जिसका दबदबा इतिहास और मिथक दोनों में रहा

धार की वर्तुल रेंज, पैनी और दीर्घ
बहुविध कौतुक की गुंजाइश लिए हुए
यानी कम से कम समय में अधिक से अधिक काम हो सके

विक्रम-बेताल में दिखी वह, रावण - अहिरावण में भी
दुर्गा का एक हाथ उसकी मूठ थामने के लिए रहा

तलवार की छाँह में अपने प्रेम को ले गया पृथ्वीराज
तलवारों को हवा में लहराते हुए आए सारे आक्रान्ता

जो तलवार लहराते आया वह रक्त टपकाते हुए ले गया ख़ज़ाने
जो किताबें लेकर गया वह तलवार लेकर नहीं आया था

तलवारों के इस दबदबे में
ढाल और जिरह-बख़्तर का कहीं कोई ज़िक्र नहीं आता
जो हमेशा तलवारों के साथ-साथ रहते हैं

जो लौह-कुल के होते हुए भी
हन्ता-कुल से नहीं ।
</poem>
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