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सूरज ढल कर ढलकर पच्छिम पंहुचापहुँचा,
डूबा, संध्या आई, छाई,
सौ संध्या सी वह संध्या थी,
धीमे-धीमे तारे निकले,
धीरे-धीरे नभ में फ़ैलेफैले,
सौ रजनी सी वह रजनी थी,
क्यों संध्या को यह सोचा था,
लो दिन बीता, लो रात गई
चिडियाँ चहकीचिड़ियाँ चहकीं, कलियाँ महकीमहकीं,पूरब से फ़िर फिर सूरज निकला,
जैसे होती थी, सुबह हुई,
क्यों सोते-सोते सोचा था,