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22 जनवरी {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रवि सिन्हा
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<poem>
ज़िन्दगी का ये सफ़र कुछ मगर आसान तो हो
'अहद ढोना है जिसे बे-सर-ओ-सामान तो हो
अब दिल-ए-ज़ार को देता हूँ मैं अक्सर ये दलील
जो न पूरा हो कभी तुझ में वो अरमान तो हो
इक अलहिदा सा गुज़र-गाह ख़ला में खेंचो
एक बाग़ी से सितारे का भी गर्दान तो हो
सुनते आए हैं कि शाहिद से है मंज़र का वजूद
दूरबीनों में कोई दूसरा गैहान तो हो
अब है दस्तूर के मक़्तल में तमाशा होगा
मुल्क-ए-जम्हूर में क़ातिल की भी पहचान तो हो
क्या बलन्दी है सियासत के सनमख़ाने की
ख़ल्क़ पहुँचेगी मगर दैर में भगवान तो हो
चश्म-ए-बेदार शबिस्ताँ में फिरे हैं अफ़्कार
शब-गज़ीदा ही सही सुब्ह का ऐलान तो हो
'''शब्दार्थ'''
'अहद – युग, ज़माना, प्रतिज्ञा (era, promise); बे-सर-ओ-सामान – कंगाल (destitute); दिल-ए-ज़ार – दुखी हृदय (afflicted heart); गुज़र-गाह – गतिरेखा, प्रक्षेपण पथ (trajectory); ख़ला – अन्तरिक्ष (void, space); गर्दान – परिक्रमा (going around); शाहिद – गवाह (witness); मंज़र – दृश्य (scene); गैहान – संसार, ब्रह्माण्ड (world, universe); मक़्तल – क़त्ल-गाह (slaughter house); मुल्क-ए-जम्हूर – जनता का देश (people’s country); सनमख़ाना – मन्दिर (temple); ख़ल्क़ (people) – जनता; दैर – मन्दिर (temple) ; चश्म-ए-बेदार – बिना नींद की आँखें (with eyes awake); शबिस्ताँ – शयनकक्ष (bedroom); अफ़्कार – सोच (thoughts); शब-गज़ीदा – जिसे रात ने डँसा हो (stung by the night)
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