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कुछ दोहे / राम सेंगर

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|रचनाकार= राम सेंगर
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'''आब गई तो सब गया'''

इन-से उन-से क्यों नहीं, हुए हमारे रंग ।
हम-से कितनों के हु , सोच-विचारी ढंग ।।

सोच-विचारी ढंग में, दिखे नज़र की राह ।
राह दिखे सम्भ्रम मिटें, हो उछाह - परवाह ।।

इस उछाह-परवाह से, झड़े अगति की धूल ।
बन जाते हालात सब, जीने के अनुकूल ।।

अनुकूलन का शमजनित, धीरोदात्त स्वभाव ।
कसक घटे विक्षोभ की, रंगिल होते चाव ।।

स्वप्नदर्शिता जो गई, हुआ कल्पनालोप ।
चाव-कल्पना पर नहीं, चढ़े बाहरी थोप ।।

थोप बाहरी भाव में, मचा नहीं दे खाब ।
खाब मचे से कहन की, पियरा जाए आब ।।

आब गई तो सब गया, इसी आब से ताव ।
ताव, दमक है कहन की, दमके सुघड़ रचाव ।।

यह रचाव ही कथ्य को, दे रचना का रूप ।
समझ-सूझ विधि-शिल्प से, रचना बने अनूप ।।
</poem>
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