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<poem>
देखे इन आँखों ने कितने,
तीखे - मीठे - खारे दिन ।
सोच रहे हैं गुमसुम बैठे,
देहरी और दुवारे दिन ।

कभी बर्फ़ -सी शीतल सिहरन,
कभी धूप -सी चुभन लिए ।
क्या दिन थे वे तितली जैसे ,
कोमल - कोमल छुवन लिए ।
रखे हुए हैं अब हाथों में
ज्यों जलते अंगारे दिन ।

सरक रही है सर-सर, सर-सर,
रेत समय की मुठ्ठी से ।
गुम हो गए कहाँ सब अक्षर,
आते-आते चिठ्ठी से ।
पलट रहे हैं झोली अपनी,
क्या जीते, क्या हारे दिन ।

सूने तट पर खड़ा अकेला ,
देता मन आवाज़ किसे ?
बीते कल की बात हुई वो
ढूँढ़े दर -दर आज जिसे ।
लौट चले जब दूर क्षितिज को,
हारे थके बिचारे दिन ।

सोच रहे हैं गुमसुम बैठे,
देहरी और दुवारे दिन ।
</poem>
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