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निजी पाप की मैं स्वयं को सजा दूँ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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12:02, 24 फ़रवरी 2024
यही इन्तेहाँ थी मुहब्बत की जानम,
तुम्हारे
मैं तेरे
लिए ही
तुम्हीं
तुझी
को दगा दूँ।
बिखेरी है छत पर यही सोच बालू,
मैं सहरा का
इन बादलों
मेघावली
को पता दूँ।
</poem>
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