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07:26, 28 फ़रवरी 2024 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रवि ज़िया
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<poem>
दरिया ने सूख कर मुझे हैरान कर दिया
उस पार का सफ़र मेरा आसान कर दिया
एक बार फिर से बच गई रिश्तों की आबरू
ख़ामोशियों ने फिर कोई एहसान कर दिया
करता रहा वो मुझसे मुहब्बत पे गुफ़्तगू
उठकर गया तो जंग का ऐलान कर दिया
रिश्ते तमाम आईना-ख़ानों से तोड़कर
मैंने ख़ुद अपने आप को हैरान कर दिया
मैं सोचता हूँ पत्थरों को शहरयार ने
क्यूँ कांच के घरों का निगेहबान कर दिया
फ़ुर्क़त की सर्द सर-फिरी पागल हवाओं ने
पल भर में दिल की शाख़ को बेजान कर दिया
वो मंज़िलें फ़रेब थीं जिनके लिए 'ज़िया'
हमने सुकूने-ज़िन्दगी क़ुर्बान कर दिया।
</poem>