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<poem>
हाथ का पत्थर जब दरिया में मारोगे
बहता पानी जीतेगा तुम हारोगे

महरूमी का ग़म है सारी बस्ती को
किस किस की बिगड़ी तक़दीर संवारोगे

अब के शायद बींच भँवर में डूबेगी
कश्ती से कितना सामान उतारोगे

शोर सुनाई देगा सिर्फ़ समंदर का
साहिल से जब अपना नाम पुकारोगे

किस के नाम करोगे ख़्वाबों की दौलत
बस्ती छोड़ के तुम जिस रोज़ सिधारोगे

रवि ज़िया दरिया से समझौता कर लो
अपनी प्यास से आख़िर तुम भी हारोगे।
</poem>
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