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खुले के हर ओर फैला महावन है
सघन लता-गुल्मों, वृक्षों, झाड़ी-झँखाड़ से
गूंजित गूँजित हिंस्र पशुओं की अमुखर चीख़ों से
अलँघ्य राहों पर लुप्त पदचिह्नों से ।
धरती पर कच्छप पीठ-सा उठा हुआ
अजानी, अदेखी, संकरी पगडण्डी है
पैतृक आवाज़ें वहां वहाँ ले आती हैं ।
खुले में निर्भय घूमते मृगशावक
गोधूली बेला में गौएँ रंभाती रम्भाती हैं
दूर आकाश में उठ रही धूम-शिखा
फैल रहा शुचित मन का सुवास है ।
वहांवहाँ, उस खुले में ही तुम्हारा घर है ।
</poem>
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