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<poem>
वे सब मेरे लिए स्वादिष्ट मगर
काँटेदार मछलियों की तरह हैं
मैंने जब-जब खाना चाहा उन्हें
तब-तब काँटें मेरे गले में फँस गए
उकताकर मैंने मछलियाँ खाना छोड़ दिया
जिस भोजन को जीमने का शऊर न हो
उसे छोड़ देना ही अच्छा है

अब मछलियाँ पानी में तैरती हैं
मैं उन्हें दूर से देखती हूँ
दूर खड़े होकर तैरती हुई रंग-बिरंगी मछलियाँ देखना
मछलियाँ खाने से ज़्यादा उत्तेजक अनुभव है

जीभ का पानी चाहे कितना भी ज़्यादा हो
उसमें डूबकर अधमरे होने की मूर्खता
बार-बार दोहराई नहीं जा सकती ।

— 2024
</poem>
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