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15:16, 20 नवम्बर 2008 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कुमार रवींद्र
|संग्रह=
}}
<Poem>
और...
वे बैठी रहीं दिन भर
:आँसुओं के द्वीप ही पर
देह का इतिहास उनका
है अधूरा
स्वप्न उनकी कोख का
कोई न पूरा
कभी
वे भी थीं बनातीं
:नदी-तट पर साँप के घर
भटकने को मिला उनको
एक जंगल
घर मिला जिसकी नहीं थीं
कोई साँकल
सोनचिड़िया
वे अनूठीं
:कटे जिसके हैं सभी पर
आँच उनके बदन की
उनको जलाती
कोई लिखता नहीं उनको
नेह-पाती
रात आए
परी बनतीं
:नाचती हैं ज़हर पीकर ।
</poem>