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|रचनाकार=राहुल शिवाय
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|संग्रह=रास्ता बनकर रहा / राहुल शिवाय
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<poem>
चल पड़े हैं आज वे मौका भुनाने के लिए
आँधियों के ज़ोर पर सूरज बुझाने के लिए

तीरगी का ख़ौफ़ मुझको अब नहीं है साथियो!
चंद दीपक जल रहे हैं तम मिटाने के लिए

पीली सरसों देखकर ऐसा लगा मधुमास है
क्या पता था हम मरेंगे दाने-दाने के लिए

छा गया खेतों में मातम सुन के यह उड़ती ख़बर
गाँव तक दिल्ली चली फ़सलें उगाने के लिए

सुब्ह खेतों की तरफ़ दहकान है ऐसे चला
जिस तरह सूरज निकलता है ज़माने के लिए

सिर्फ़ पाने की तमन्ना, हाथ खाली कर न दे
इसलिए कुछ खोना भी अच्छा है पाने के लिए

भेड़िये दरवेश बनकर मंदिरों में जा रहे
क्या नहीं होगा अभी सत्ता बचाने के लिए

ख़ुशनुमा इक वाक़या बनकर मैं उनके साथ हूँ
बात कम यह भी नहीं है गुदगुदाने के लिए

ये परिंदे शौक़ से आये नहीं हैं शह्र में
हम भी तो जाते हैं दिल्ली आबो-दाने के लिए
</poem>
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