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15:39, 20 नवम्बर 2008 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=कुमार रवींद्र
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<Poem>
अपराधी देव हुए
ऎसे में क्या करें मंदिर की घंटियाँ
:उनको तो बजना है
:बजती हैं
:कई बार
:आपा भी तजती हैं
धूप मरी भोर-हुए
कैसे फिर धीर धरें मंदिर की घंटियाँ
:भक्तों की श्रद्धा वे
:झेल रहीं
:आंगन में अप्सराएँ
:खेल रहीं
उनके संग राजा भी
देख-देख उन्हें तरें मंदिर की घंटियाँ
:एक नहीं
:कई लोग भूखे हैं
:आँखों के कोये तक
:रूखे हैं
दर्द सभी के इतने
किस-किस की पीर हरें मंदिर की घंटियाँ ।
</poem>