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एक चाय के
इंतज़ार में
बैठा है अख़बार

खोज रही हैं
कलियाँ कब से
प्यारा-सा स्पर्श
करी पत्तियाँ
व्याकुल हैं
रचने को स्वाद-विमर्श

धीमे-धीमे
बीत रहा है
हम सब का इतवार

खिड़की के
पर्दाें से तय थी
आज तुम्हारी बात
मिलने को
आतुर है छत पर
तुमसे नवल प्रभात

ताक रहे हैं
पंथ तुम्हारा
आँगन, छत, दीवार

इस घर के
कोने-कोने में
पाया तुमने मित्र
पर मेरी इन
आँखों में भी
जीवित एक चरित्र

मेरी छुट्टी
का भी तुमपर
थोड़ा है अधिकार।
</poem>
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