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{{KKRachna
|रचनाकार= सुरंगमा यादव
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}}
[[Category: ताँका]]
<poem>
12
ये मन मेरा
तेरे स्वप्नों से सजा
तेरे बिन है
यह जीवन सजा
कौन समझे व्यथा।
13
प्रेम का पौधा-
समर्पण का जल
भावों की क्यारी
मन की निश्चलता
पाकर ही बढ़ता।
14
वसंत आता
सबको ये लुभाता
उतरे नहीं
जीवन में सबके
वसंत नखरीला।
15
थम न रहीं
बरखा की झड़ियाँ
मिल न रहा
प्रेमियों की बातों-सा
इनका कहीं सिरा।
16
सहेजा क्या-क्या!
तृप्ति कण न मिला
प्रेम की बूँद
सागर भर तृप्ति
जीवन भर देती।
17
नींद के संग
गलबहियाँ डाले
तेरे ही स्वप्न
थिरके रात भर
नयन मंच पर।
18
देख तपन
स्मृतियों की बरखा
भिगोती मन
नयनों की ओलती
रहती टपकती।
19
प्रेम-प्रदेश
वही करे प्रवेश
वार सके जो
प्रिय के आँसू पर
जीवन की मुस्कानें।
20
निज शक्ति का
अहसास जरूरी
पल में की थी
हनुमत ने पूरी
सागर तक दूरी।
21
निरत सदा
रहती है प्रकृति
कार्यों में निज
फिर हम क्यों ओढ़े
आलस्य आवरण।
22
पथ बाधा से
विचलित होकर
जीवन व्यर्थ
सच्चा मनुज वही
जो करता संघर्ष।

</poem>
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