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<poem>
मित्र पुरवाई!
यहाँ तुम शंख मत फूँको
यह प्रणय की लौ हृदय में थरथराएगी

गीत देते हैं सुनाई
आम-महुआ के
शुभ्र मन वनवीथियों से
जब गुज़रता है
भूल अपना ध्येय,
अपनी साधनाओं को
तब अपरिचित-सा पथिक
मन में उतरता है

पीत सरसों से कहो
आँचल न लहराए
आस हल्दी की हृदय में कसमसाएगी

धैर्य की समिधा अगर इन
सप्तपदियों के
मंत्र से जुड़ जाएगी तो,
कौन थिर होगा
हर दिशा संभावनाओं
को जगाएगी
और फिर मधुमास जैसा ही
शिशिर होगा

इस कुँवारी दृष्टि को
सौंपो न मंजरियाँ
यह अकेली साँझ सुध-बुध भूल जाएगी

प्रीति-सौरभ इस हृदय में
क्यों बसाऊँ मैं
और कस्तूरी लिए
क्यों मृग सदृश भटकूँ
उर्वशी के रूप से
बींधा हुआ खग बन
क्यों हृदय की कामना को
पुरुरवा कर दूँ

टेसुओं को बोल दो
भेजे न हरकारे
प्रीति मेरे द्वार से ईंगुर न पाएगी
</poem>
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