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|रचनाकार=राहुल शिवाय
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आज मैं
तुम तक
पहुँचना चाहता हूँ
हो गये दो
हाथ
मेरे पर-सरीखे
स्वयं में हँसकर
बिहँसकर
आज में
आनंद में हूँ
क्या लिखूँ
किसको सुनाऊँ
स्वयं भी तो
छंद में हूँ
हो गये
जज़्बात
अब आखर-सरीखे
मुस्कुराती
रात गाती
है शरद की
चाँदनी को
नाचती है
पहन हरसिंगार
वाली
पैंजनी को
लग रहे दिन
आज
अक्तूबर सरीखे
अब कहाँ चुभता
अधूरापन
मिलन-पूनम
निकट है
सामने
दिखती लहर
औ दृष्टि में वह
तृप्ति घट है
उठ रहे हैं
ज्वार
मधुरिम-स्वर-सरीखे
</poem>
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