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<poem>
आज मैं
तुम तक
पहुँचना चाहता हूँ
हो गये दो
हाथ
मेरे पर-सरीखे

स्वयं में हँसकर
बिहँसकर
आज में
आनंद में हूँ
क्या लिखूँ
किसको सुनाऊँ
स्वयं भी तो
छंद में हूँ

हो गये
जज़्बात
अब आखर-सरीखे

मुस्कुराती
रात गाती
है शरद की
चाँदनी को
नाचती है
पहन हरसिंगार
वाली
पैंजनी को

लग रहे दिन
आज
अक्तूबर सरीखे

अब कहाँ चुभता
अधूरापन
मिलन-पूनम
निकट है
सामने
दिखती लहर
औ दृष्टि में वह
तृप्ति घट है

उठ रहे हैं
ज्वार
मधुरिम-स्वर-सरीखे
</poem>
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