{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=धनंजय सिंह
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
कोई उजली, भीगी बदली
आकर कन्धे पर झुक जाए
तो तुम्हीं कहो, वह भीगापन
जी लूँ या तन-मन जलने दूँ ?
मैं प्यास छिपाए फिरता हूँ
बादल से, सरिता- जल से भी
यद्यपि अधरों का परिचय है
बिजली से भी, उत्पल से भी
कोई हिमखण्ड तपन मेरी
हरने को आतुर हो जाए
तो तुम्हीं कहो, वह शीतलता
पी लूँ या कण-कण ढलने दूँ ?
अनकही हमारी बातों को
सब दीवारें सुन लेती हैं
फिर अपनी सुविधाओं वाला
ताना-बाना बुन लेती हैं
यदि तोड़ भ्रमों का इन्द्रजाल
कोई वातायन खुल जाए
तो तुम्हीं कहो, तम की परतें
यों छीलूँ या भ्रम पलने दूँ ?
</poem>