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|रचनाकार=नामवर सिंह
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झलकता रुपहले से पुल का तोरण नभ पर
गंगा में ज्योति-लताएँ शत-शत कम्पमान
शिशु के दृग से नीले जल को कर लाल
जल उठा अचानक ही मणिकर्णिका का श्मशान ।
तट से तिमंज़िले की स्वर - लहरी में डूबा
मिटती सिन्दूर की रेखा-सा वह दूज चाँद
सरिता का वक्ष फफोले-सा उठकर क्षण में
फिर बैठ गया ऐसे कि मुझे हो भी न मान ।
</poem>
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