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<poem>
क्या प्रिये संभव नहीं है
एक हों जाएँ किनारे,
इस नदी के

प्रेम का आभास यह अंतर जगा जो
एक गरिमा है स्वयं में
नेह की यह बाँह जो कांधे चढ़ी है
यह रहेगी, है अहं में
जानती हो सत्य से यह दूर कितना
क्या प्रिये संभव नहीं है
एक हो हम दिन मिटा दें
त्रासदी के

कृष्ण-राधा, हीर-रांझा सी कहानी
बन अभी तक जी रहे हैं
ज्यों नदी के दो किनारें साथ होकर
विरह विष को पी रहे हैं
अंत यह स्वीकार क्या तुमको हमारा
क्या प्रिये संभव नहीं है
गीत नूतन बन जिए हम
इस सदी के

तुम खड़े उस पार मैं इस पार में हूँ
प्रेम पर मझधार में है
तुम जिसे सत, पाप कहती हो प्रिये वह
हृदय के स्वीकार में है
मत बनाओ प्रेम को समिधा हवन की
क्या प्रिये संभव नहीं है
तोड़ दो बंधन सभी
नेकी-बदी के
</poem>
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