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21 जुलाई {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=कांतिमोहन 'सोज़'
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<poem>
अबके गुलों में रंग है बू है न आब है ।
हर पंखड़ी में पर तेरा रंगीन ख्वाब है ।
नासेह मैं तेरी नेक नसीहत का क्या करूँ
मय से तेरी जुदा है जो मेरी शराब है ।
अब मीर-ओ असद के ज़माने का क्या करें
कहते थे ये जहान सरापा सराब^ है ।
आजा कि अब तो देखनेवाला कोई नहीं
टूटा है हर तिलिस्म शबे-माहताब है ।
दोनों तरफ़ से छूटके टकरा गए सवाल
मेरा जवाब है न तुम्हारा जवाब है ।
उसको उलटके आँख मिलाने की ताब ला
हर हर्फ़े-हक़ के रुख़ पे सुनहरी नक़ाब है।
मुमकिन भी हो तो उससे न दामन बचाके चल
दीवानगी तो इश्क़ का लुब्बोलुबाब है।
'''शब्दार्थ :'''
सरापा सराब= मृगतृष्णा,
हर्फ़े-हक़ =सत्य वचन,
लुब्बोलुबाब = सार
23-11-1996
**आखिरी तीन शेरों में चार और शेर जोड़कर ग़ज़ल मुकम्मल की।
20-7-2020
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