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<poem>
बहुत दिनों बाद
आज फिर तुम याद आये हो

याद है तुमको
लाल टिब्बा की वह बरसती दोपहर

किशोर थे हम
पहाड़, बारिश और बादलों के पीछे की
वो स्वर्णिम रेखा
हमें पागल कर देने के लिए
बहुत होती थी

ऐसी ही ढलते सूरज वाली शाम थी
और मैं फिसल गया था
पत्थर से टकरा कर
खून रिसने लगा था
घुटने से

तुमने सहज भाव से
अपनी जेब से
रुमाल निकला और मेरी चोट पर
बाँध कर पूछा था
बहुत दुखता है क्या?
मैंने हँसते हुए कहा था
अरे नहीं
रात होने को है
घर चलते हैं

आज जब मैं साठ का होने को हूँ
पहाड़ पर बरसाती शाम को
टहलना अब भी भाता है
आज फिर फिसल गया हूँ
आज सिर्फ़ घुटना ही नहीं छिला
मोच भी आ गयी है।

तुम्हारा न होना
बहुत याद आया ।
</poem>
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