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सर्द हवाएँ / नीना सिन्हा

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सर्द हवाएँ अब बहुत चुभती है
क्या शेष रह गया तुम्हारे लहजे में
किस सच को तुमने अनदेखा किया
किस सच पर विरक्ति की अलख जलायी
कौन-सा झूठ है
जो धड़कन की सिम्त ढलता है
कौन-सी बात है जो तह के अंतिम सिरे समायी है

इक कहानी जो केंद्र से भटक गयी
इक राह जो मंज़िल से मुख्तलिफ़ हुयी

इक अनमोल भेंट जो चमचमाते लिफ़ाफ़ों में असर खो गया
इक नज़्म जो किरदारों से अलग गुनगुनायी गयी

अब सर्दियाँ है
कुरेदती है बुझी राख
कुछ दाग़ जो वक़्त के पैरहन पर हमेशा रह गये

गीले आसमाँ पर चाँद भी
अब कँपकँपाता है
उन्हें निहारने वालो ने फ़िलहाल खिड़कियाँ बंद कर ली हैं

अलाव में कमरे का तापमान बढ़ता है
फिर भी
सर्द हवाएँ नश्तर-सी नसों में शूल की तरह उतरती

तुम नफ़स में याद की चिलमियाँ जलाना
इक वही रौशनी है
जो रात के हर पहर जला करती है!</poem>
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