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|रचनाकार=अरुणिमा अरुण कमल
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<poem>
मुखिया के माथे पर
बोझ बहुत भारी है
बाबा की बेटियाँ
अनब्याही सारी हैं
और कितना पढ़ाओगे
केवल पछताओगे
गुलदस्ता न बनाओ
इन्हें घर की फुलवारी है
ब्याहने को दूल्हा नहीं मिलेगा
समाज जब ख़ूब मज़े लेगा
तब बत्ती जलेगी दिमाग़ की
अरे भाई ! इज़्ज़त यूँ न गँवाओ
अपने समाज की !

लेकिन, जानती है माँ !
बाबा ने छाती चौड़ी कर कह डाला
बत्ती तो जल गई है दिमाग़ की
बहुत चिंता कर ली समाज की
तुम अपनी फूल को धूल ही समझना
बेटियों को हमेशा फ़िज़ूल ही समझना
मेरी बेटियाँ देश का मान बढ़ाएँगी
समाज में अपना हाथ बटाएँगी
बाप के साथ-साथ
माँ का भी नाम रोशन कर जाएँगी!
</poem>
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