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|रचनाकार=अरुणिमा अरुण कमल
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<poem>
मुझे याद है
वह सोलह साल की छोटी-सी बच्ची थी
जो बचपना जाने से पहले ही
माँ बन बैठी थी
बेटी का सुख समझ न पायी
जब कोख भर आयी थी
सपने आने अभी शुरू भी नहीं हुए होंगे
मन की आँखें अभी बंद ही रही होंगी
हृदय शायद ही धड़का होगा एक बार भी
कि एक धड़कन गर्भ में पलने लगी
और सभी सपनों से दूर वह
माँ का रूप बदलने लगी
देह में ताक़त नहीं थी
बस मन में माँ का ममत्व भरा था
पीठ से सटे अपने पेट में
उसने गहरी साँस भरी थी
और पल्लू के भीतर
जिसमें बच्चे के लिये
माँ के एहसास से ज़्यादा कुछ भी नहीं था
उसने उसे समा लिया
आज फिर से इस समाज ने
एक बेटी और एक माँ दोनों को खा लिया!
</poem>
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