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|रचनाकार=आलोक धन्वा
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<Poem>
उन स्त्रियों का वैभव मेरे साथ रहा
जिन्होंने मुझे चौक पार करना सिखाया।
हर सुबह काम पर जाती थीं
मेरा स्कूल उनके रास्ते में पड़ता था
मां माँ मुझे उनके हवाले कर देती थींछुटटी होने पर मैं उनका इन्तजार इन्तज़ार करता थाउन्होंने मुझे इन्तजार इन्तज़ार करना सिखायसिखाया
कस्बे के स्कूल में
मैंने पहली बार ही दाखिला दाख़िला लिया था
कुछ दिनों बाद मैं
खुद ख़ुद ही जाने लगा
और उसके भी कुछ दिनों बाद
कई लड़के मेरे दोस्त बन गए
उन थोड़े से दिनों के कई दशकों बाद भी
जब कभी मैं किसी बड़े शहर के
बेतरतीब चौक से गुजरता हूंगुज़रता हूँ
उन स्त्रियों की याद आती है
और मैं अपना दायां दायाँ हाथ उनकी ओरबढा देता हूंहूँबायें हाथ से स्लेट को संभालता हूंहूँ
जिसे मैं छोड़ आया था
बीस वर्षों के आखबारों अख़बारों के पीछ।पीछे। </poem>