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ज़रा सोचना
आख़िर कैसे नया सवेरा आयेगा
जब हम अपने हक़ की ख़ातिर
मिलकर लड़ना भूल गये

कैसे ऊसर की आँखों में
फिर से कोंपल फूटेगी
वर्षों से हम सब सोये हैं
नींद भला कब टूटेगी

ज़रा सोचना
फिर वसंत का मौसम कैसे छायेगा
जब हम पतझर पर अटके हैं
आगे बढ़ना भूल गये

इन आँखों की उम्मीदों को
खलिहानों तक लाना है
मन की पीड़ाओं को हल तक,
मुस्कानों तक लाना है

ज़रा सोचना
मुक्तियुद्ध का परचम कैसे लहरायेगा
जब हम सब अपनी क्षमताओं
को ही पढ़ना भूल गये

भूल गये हैं हम कबीर को
प्रतिरोधों की भाषा को
भूल गये गाँधी के सपने
हम अपनी अभिलाषा को

ज़रा सोचना
अँधियारा आख़िर कैसे घबरायेगा
यदि अतीत से सीख
नये पृष्ठों को गढ़ना भूल गये
</poem>
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