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<poem>
इतना भार नहीं डालो उनके सिर पर
पहले कोंपल को टहनी तो होने दो

बचपन से बचपना
छीननकर
क्या सिखलाना चाह रहे
एक दौड़
में झोंक रहे हैं
क्या अब पाना चाह रहे

साथ समय के ख़ुद ही खोजेंगे अवसर
पहले कोंपल को टहनी होने तो दो

चार वर्ष में
चार किताबें
देखो टाँग रहे हैं कंधे
क्या बनना है
उसे बताकर
क्यों तुम बना रहे हो अंधे

अभी समझ पाएँगे नहीं समय का स्वर
पहले कोंपल को टहनी होने तो दो

धीरे-धीरे
जिनके मन में
कृत्रिमता हम बोते आये
उनकी ख़ातिर
ही कहते हैं-
'इस युग में हम हुए पराये'

तोता बन जाएँगे केवल रट-रट कर
पहले कोंपल को टहनी होने तो दो
</poem>
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