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<poem>
बापू!
कैसी थी बतलाओ
आज़ादी की शाम ?
आज अलग है
क्या उस दिन से
भारत का परिणाम ?

सत्याग्रह
ने अर्थ भुलाकर
भीड़तंत्र अपनाया
और अहिंसा
को निर्बलता
का चोला पहनाया

मढ़ा सत्य के सिर जाता है
रोज़ नया इल्ज़ाम

मुश्किल है
बिखरे टुकड़ों को
अब कुछ भी समझाना
एक नाम है
अल्ला-ईश्वर
यह उनको बतलाना
कौन करे पतितों को पावन
बदल गये हैं राम

कच्चे मन को
अलगावों का पावक
तपा रहा है
स्वर्णिम भारत के
अरमानों ने बस
दंश सहा है

शोषण के चाबुक
से हर दिन
छूट रहा है चाम।
</poem>
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