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15 अगस्त {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=राहुल शिवाय
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पीर परायी समझ नहीं
पाया अंतरमन
खोज रहा हूँ आज वैष्णवों में
वैष्णव जन
निंदक नियरे रखने वाले
निंदा के पर्याय हो गये
कैसे परहित जीने वाले
स्वार्थ जनित अभिप्राय हो गये
सत्यमेव जयते का स्वर है
कितना निर्धन
वैष्णव जन के मानक कब थे
आडम्बर, पाहन-मन, नारे
सत्य-अहिंसा, सद्भावों के
वैष्णव बनकर रहे किनारे
चिंता होगी तब तो मन
कर पाएगा चिंतन
अमृतकाल तरेगा तब ही
जब वैष्णव जन के दर्शन हों
चित्त रखे सम्यक की तृष्णा
हरि-मन के जब वैष्णव जन हों
बापू के सपनों का भारत
भूला भाव-भजन।
</poem>