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11:01, 22 नवम्बर 2008 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
[[Category:लम्बी कविता]]
{{KKPageNavigation
|पीछे=एक स्वप्न कथा / भाग 2 / गजानन माधव मुक्तिबोध
|आगे=एक स्वप्न कथा / भाग 4 / गजानन माधव मुक्तिबोध
|सारणी=एक स्वप्न कथा / गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
::'''3'''<br><br>
जाने क्यों, काँप-सिहरते हुए,<br>
एक भयद<br>
अपवित्रता की हद<br>
ढूँढ़ने लगता हूँ कि इतने में<br>
एक अनहद गान<br>
निनादित सर्वतः<br>
झूलता रहता है,<br>
ऊँचा उठ, नीचे गिर<br>
पुनः क्षीण, पुनः तीव्र<br>
इस कोने, उस कोने, दूर-दूर<br>
चारों ओर गूँजता रहता है।<br>
आर-पार सागर के श्यामल प्रसारों पर<br>
अपार्थिव पक्षिणियाँ<br>
अनवरत गाती हैं--<br>
चीख़ती रहती हैं<br>
ज़माने की गहरी शिकायतें<br>
ख़ूँरेज़ किस्सों से निकले नतीजे और<br>
सुनाती रहती हैं<br>
कोई तब कहता है--<br>
पक्षीणियाँ सचमुच अपार्थिव हैं<br>
कल जो अनैसर्गिक<br>
अमानवीय दिखता था<br>
आज वही स्वाभाविक लगता है,<br>
निश्चित है कल वही अपार्थिव दीखेंगे।<br>
इसीलिए, उसको आज अप्राकृत मान लो।<br><br>
सियाह समुन्दर के वे पाँखी उड़-उड़कर<br>
कन्धों पर, शीश पर<br>
इस तरह मँडराकर बैठते<br>
कि मानो मैं सहचर हूँ उनका भी,<br>
कि मैंने भी, दुखात्मक आलोचन -<br>
-किरनों के रक्त-मणि<br>
हृदय में रक्खे हैं।<br>
पक्षिणियाँ कहती है--<br>
सहस्रों वर्षों से यह सागर<br>
उफनता आया है<br>
उसका तुम भाष्य करो<br>
उसका व्याख्यान करो<br>
चाहो तो उसमें तुम डूब मरो।<br>
अतल निरीक्षण को,<br>
मरकर तुम पूर्ण करो।<br><br>