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|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
[[Category:लम्बी कविता]]
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}}

::'''4'''<br><br>
मुझसे जो छूट गये अपने वे<br>
स्फूर्ति-मुख निहारता बैठा हूँ,<br>
उनका आदेश क्या,<br>
क्या करूँ?<br><br>
रह-रहकर यह ख़याल आता है-<br>
ज्ञानी एक पूर्वज ने<br>
किसी रात, नदी का पानी काट,<br>
मन्त्र पढ़ते हुए,<br>
गहन जल-धारा में<br>
गोता लगाया था कि<br>
अन्धकार जल-तल का स्पर्श कर<br>
इधर ढूँढ, उधर खोज<br>
एक स्निग्ध, गोल-गोल<br>
मनोहर तेजस्वी शिलाखण्ड<br>
तमोमय जल में से सहज निकला था;<br>
देव बना, पूजा की।<br>
उसी तरह सम्भव है-<br>
सियाह समुन्दर के<br>
अतल-तले पड़ा हुआ<br>
किरणीला एक दीप्त<br>
प्रस्तर - युगानुयुग<br>
तिमिर-श्याम सागर के विरूद्ध निज आभा की<br>
महत्त्वपूर्ण सत्ता का<br>
प्रतिनिधित्व करता हो, आज भी।<br>
सम्भव है, वह पत्थऱ<br>
मेरा ही नहीं वरन्<br>
पूरे ब्रह्माण्ड की<br>
केन्द्र-क्रियाओं का तेजस्वी अंश हो।<br>
सम्भव है,<br>
सभी कुछ दिखता हो उसमें से,<br>
दूर-दूर देशों में क्या हुआ,<br>
क्यों हुआ, किस तरह, कहाँ हुआ,<br>
इतने में कोई आ कानों में कहता है--<br>
ऐसा यह ज्ञान-मणि<br>
मरने से मिलता है;<br>
जीवन के जंगल में<br>
अनुभव के नये-नये गिरियों के ढालों पर<br>
वेदना-झरने के,<br>
पहली बार देखे-से, जल-तल में<br>
आत्मा मिलती है<br>
(कहीं-कहीं, कभी-कभी)<br>
अरे, राह-गलियों में<br>
पड़ा नहीं मिलता है ज्ञान-मणि।<br><br>
हाय रे!<br>
मेरे ही स्फूर्ति-मुख<br>
मेरा ही अनादर करते हैं,<br>
तिरस्कार करते हैं,<br>
अविश्वास करते हैं!<br>
मुझे देख तमतमा उठते हैं।<br>
क्रोधारुण उनका मुख-मण्डल देखकर लगता है,<br>
छिड़ने ही वाली है युग-व्यापी एक बहस<br>
उभरने वाली है बेहद जद्दोजहद ?<br>
बहुत बड़ा परिवर्तन<br>
सघन वातावरण होने ही वाला है;<br>
जिसके ये घनीभूत<br>
अन्धकार-पूर्ण शत<br>
पूर्व-क्षण<br>
महान अपेक्षा से यों तड़प उठते हैं<br>
कि मेरे ही अंतःस्थित संवेदन<br>
मुझपर ही<br>
झूम, बरस, गरज, कड़क उठते हैं।<br><br>
उनका वार<br>
बिलकुल मुझी पर है;<br>
बिजली का हर्फ़<br>
सिर्फ़ मुझपर गिर<br>
तहस-नहस करता है;<br>
बहुत बहस करता है<br><br>