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{{KKRachna
|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
[[Category:लम्बी कविता]]
{{KKPageNavigation
|पीछे=एक स्वप्न कथा / भाग 5 / गजानन माधव मुक्तिबोध
|आगे=एक स्वप्न कथा / भाग 7 / गजानन माधव मुक्तिबोध
|सारणी=एक स्वप्न कथा / गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
::'''6'''<br><br>
मुझे जेल देती हैं<br>
दुश्मन हैं स्फूर्तियाँ<br>
गुस्से में ढकेल ही देती हैं।<br>
भयानक समुन्दर के बीचोंबीच फेंक दिया जाता हूँ।<br>
अपना सब वर्तमान, भूत भविष्य स्वाहा कर<br>
पृथ्वी-रहित, नभ रहित होकर मैं<br>
वीरान जलती हुई अकेली धड़कन...
सहसा पछाड़ खा<br>
चारों ओर फैले उस भयानक समुद्र की<br>
(काले संगमूसा-सी चिकनी व चमकदार)<br>
सतहों पर छटपटा गिरता हूँ<br>
कि माथे पर चोट जो लगती है<br>
लहरें चूस लेती हैं रक्त को,<br>
तैरने लगते-से हैं रुधिर के रेशे ये।<br>
इतने में ख़याल आता है कि<br>
समुद्र के अतल तले<br>
लुप्त महाद्वीपों में पहाड़ भी होंगे ही<br>
उनकी जल खोहों तक जाना ही होगा अब।<br>
भागती लहरों के कन्धों के साथ-साथ<br>
आगे कुछ बढ़ता हूँ कि<br>
नाभि-नाल छूता हूँ अकस्मात्।<br>
मृणाल, हाँ मृणाल<br>
जल खोहों से ऊपर उठ<br>
लहरों के ऊपर चढ़<br>
बनकर वृहद् एक<br>
काला सहस्र-दल सम्मुख उपस्थित है,<br>
उसमें हैं कृष्ण रक्त।<br>
गोता लगाऊँ और<br>
नाभि-नाल-रेखा की समान्तर राह से<br>
नीचे जल-खोह तक पहुँचूँ तो<br>
सम्भव है सागर का मूल सत्य<br>
मुझे मिल जायगा।<br>
अन्धी जल-खोहों में<br>
क्यों न हम घूमें और<br>
सर्वेक्षण क्यों न करें<br>
फिरें-तिरें।<br>
चाहें तो दुर्घटनाघात से<br>
बूढ़ी विकराल व्हेल-पंजर की काँख में
फँसें-मरें।<br><br>
इतने में, भुजाएँ ये व्यग्र हो<br>
पानी को काटती उदग्र हो।<br>
अचानक खयाल यह आता है कि<br>
काले संगमूसा-सी भयानक लहरों के<br>
कई मील नीचे के एक<br>
वृहद नगर<br>
भव्य.....<br>
सागर के तिमिर-तले।<br>
निराकार निराकार तमाकार पानी की<br>
कई मील मोटी जो लगातार सतहें हैं<br>
जहाँ मुझे जाना है।<br>
इसीलिए, मुझे इस तमाकार पानी से<br>
समझौता करना है<br>
तैरते रहना सीमाहीन काल तक<br>
मुझको तो मृत्यु तक<br>
भयानक लहरों से मित्रता रखना है।<br>
इतने में, हाय-हाय<br>
सागर की जल-त्वचा थरथरा उठती है,<br>
लहरों के दाँत दीख पड़ते हैं पीसते,<br>
दल पर दल लहरें हैं कि<br>
तर्कों की बहती हुई पंक्तियाँ,
दिगवकाश-सम्बन्धी थियोरम या<br>
ऊर्धोन्मुख भावों की अधःपतित<br>
उठती निसैनियाँ!!<br><br>
और,ये लहरें जिस सीमा तक दौड़तीं<br>
जहाँ जिस सीमा पर खो-सी जाती हैं<br>
वहीं, हाँ,<br>
पीली और भूरी-सी धुन्ध है गीली सी<br>
मद्धिम उजाले को मटमैला बादली परदा-सा<br>
कि जिसके प्रसार पर<br>
::जुलूस चल पड़ते हैं
::दिक्काल<br><br>