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<poem>
सुरमई घनों के पार मूँगिया गिरी छाए ।
देखते-देखते नयन घनों से भर आए ।।

लघु खेत वीचियों से घाटी में लहराते
घन दुग्ध धवल फेनों से जैसे उतराते
मन डूब रहा पर तन जग में ज्यों उतराए ।

शत शैल फूल शिखि पुच्छ नयन से खुले -खुले
ढलते दिन का आतप पीते बेहिले डुले
मेरे आतप ! ये नयन तुम्हें पी मुस्काए ।

ऊपर घन, नीचे धूप - छाँह की कँपकँपी
घाटियों के बीच निशिदिन खेले जो लुका-छिपी
ओ ज्योति, छाँह सा मन इस बेला ललचाए ।

छन रही धूप कम्पित तरुओं से चपल - चपल
ज्यों हरसिंगार के फूल झर रहे धवल-धवल
मन पर किसनए सुधि के प्रसून से बिखराए ।

अप्रैल, १९४७
</poem>
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