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10:25, 30 अगस्त 2024 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=नामवर सिंह
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<poem>
पुरवैया के हिलकोरों से
क्यों इतना इठलाता बादल ?
मस्ती के आलम में किसपरूना
अन्तर में ग्रीष्म जलता
आँखों में उमड़ा - सा सावन
नन्हे से जीवन में उठकर
आज हिलोरें लेता यौवन
जिसमें खेल रहा चपला सा
एक लकीर लिए अपनापन
अपनी क्रीड़ा से भर देता
सूने नभ - उर का सूनापन
देख तुम्हें कुछ पास हृदय के
धुँधला सा छा जाता बादल ?
मुँदते सरसिज - रवि पर पागल
अलिदल - से बादल मड़राए
छलकाते से उर का मधुरस
किरन - पँखुरियों पर घिर आए
घुँघराली घन सी अलकों पर
किसके हृदय नहीं लहराए
अधरों पर तड़पन, आँसू बन
बन्द अँखड़ियों में तुम छाए
क्यों अपनी बूँदों के तारों पर
रोकर गा जाता बादल ?
पल - पल मरने ही मिटने में
बिता दिया यह भारी जवानी
बन्धन में प्राचीर पवन के
उम्र कटी, खो गई रवानी
रह - रह उमड़ - उमड़ आती क्यों
उर में भूली बात पुरानी
दिल का राज छिपाकर तूने
ज्वालामुखी रचा अभिमानी
क्यों जल - जल, घुल - घुल, रो - रोकर
तड़प - तड़प रह जाता बादल ?
ऊँघ रही भीगी पलकों में
मधुमय स्वप्न लिए अन्धियारी
जुगनू के अंगार कुसुम से
सजा - सजा नभ की फुलवारी
पवन करों से सहला भू के
घावों को भर दिया अनारी
और धरा की पुलकन में
दी बाँध नशीली नींद - खुमारी
फिर क्यों टूटे जलतारों पर
रुँधे कण्ठ से गाता बादल ?
मँह - मँह फूलों के सौरभ में
उड़ जाती है भ्रमर कहानी
रह - रह सो जाते श्यामल खेतों
पर घन - दुनिया दीवानी
अहरह जीवन के सागर में
उड़ते हैं बुद - बुद तूफ़ानी
लह - लह लहराती घासों पर
छम - छम नाच रहा है पानी
भार लिए अम्बर का द्रुत
पंखों पर उतरा आता बादल ?
पुरवैया के हिलकोरों में
क्यों इतना इठलाता बादल ?
क्षत्रिय मित्र, सितम्बर, १९४३
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