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बडी मुस्किल बड़ी मुश्किल में पड पड़ गया अब, कैसे करूँ मैं माँ का की परिभाषा?
अगर पूछा होता मेरे बारे में तो
आसानी से कह सकता था-था—हर रोज रोज़ जो खबर पढ्ते पढ़ते हो तुम
उसका निर्लज्ज पात्र
मैं हूँ ।हूँ।
तुम्हारी कविता में रहनेवाला भयानक विम्वविम्बजो हर वक्त तुम्हारे ही विरुद्ध में रहता हैवो मैं हूँ । हूँ।
राजनीति का कारखाना के कारखाने में निरन्तर निरंतर प्रशोधन होनेवालाअपराधका अपराध का नायकमैं हूँ । हूँ।
तुम्हारे तुम्हारी जानकारी में कभी भी नआने न आने वाले गैह्रकानूनी धन्धेगैरकानूनी धंधे,किसी शक के बहैरह बिना मान लिया जाने वाले वाला झूठ,आकाश से भी ज्यादा फैला हुवा हुआ लालच के आँखेँकी आँखें,सगरमाथा से उँचा घमण्डऊँचा घमंड,कर्तव्य को कभी भी याद कर नसकने न करने वाला हठी दिमाग,संवेदनोओँ संवेदनाओं के लाशोँ शवों के उपर हसतेँ ऊपर हँसते रहने वाला वाली मानवीयता,सभी -सभी मैं हूँ । हूँ।
ना पूछना था, पूछ ही तो लियाबस्बस, इतना कह सकता हूँ-हूँ—
माँ के साथ रहने तक
मैं सब से सबसे अच्छा था ।था।
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