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सूर्य / मनमोहन

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<poem>
तू आँखें मलता है
और कसमसाती हैं
धरती की रस्सियाँ

पानी अपनी आवाज़ें खोलता है
और घास अपनी ख़ुशबुएँ

तू अपना धनुष उठाता है
और अ्न्धेरा चीज़ों से उछलता है
डरे हुए चूहे की तरह

तू हज़ारों साल चलता है
लेकिन चिथड़ों तक पहुुँचता है

मिट्टी में खुलते हुए
पौधे के रुधिर में
तू हर पल पहुँचता है
ताप बनकर

तीक्ष्ण तेरे तीर गिरते हैं
मरे हुए जानवरों की ठठरियों पर
खोहों के भीतर, सीलन भरी गलियों में

फटे हुए किवाड़ों की फाँक से
निर्धनता के आँगन में गिरते हैं
तेरे तीर

(1977)
</poem>
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