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अम्मा का बटुआ / रंजना जायसवाल

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<poem>
आज बड़े बटुए में से
छोटे बटुए को निकलते वक्त
बरबस ही अम्मा की याद आ गई
जिसके आँचल में गठियाई गई पूंजी
किसी खजाने से कम नहीं होती थी
आँचल के छोर में बंधी वह गाँठ
कभी गाढ़े वक़्त में किनारा बन जाती
तो कभी छुटके की ज़िद को
पूरी करने का सहारा बन जाती
कभी दिदिया की विदाई बन जाती
तो कभी नज़र उतारने की रानाई बन जाती
मेरे पास भी एक बटुआ है
पर पूँजी के नाम पर है कुछ कार्ड
शायद ए टी एम और डेबिट
जिनमें भरी है बहुत सारी पूँजी
पर खाली है अम्मा के दुलार से
अम्मा के आशीर्वाद से
खुरदुरी उंगलियों की गर्माहट से
ख़ुशियों की सुगबुगाहट से
मेरे पास भी है बटुआ
पर शायद खाली है?
</poem>
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