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माँ / रंजना जायसवाल

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<poem>
बेटियों ने
माँ को सिर्फ़ माँ समझा
कभी लड़की क्यों नहीं
क्यों नहीं समझा
उसके भी सपने रहे होंगे
उस की ही तरह
वो भी चाहती होगी
कच्ची कैरियों के स्वाद में
आकंठ डूब जाना
रंगीन गोलियों में सिक्त हो जाना
उन्मुक्त आसमान को छू लेना
रंगीन तितलियों की तरह
उसके भी होंगे रंगीन सपने
पर...
वो तो हमेशा भरती रही
उम्मीद के रंगों से
हमारे सपनों को
सीढ़ी बनती रही
हमारे अंतहीन आकाश के लिए
और हम समझते रहे
कि माँ सिर्फ़ माँ ही होती है
भूल जाते हैं
कभी वह लड़की भी रही होगी
उस माँ बनने तक के सफ़र में
लड़की तो कब की मर चुकी थी
और सपनें कहीं दूर कराह रहे थे।
सच कहूँ तो
भूल जाते हैं हम भी
कि माँ भी कभी लड़की थी
</poem>
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