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19:44, 18 सितम्बर 2024 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्राणेश कुमार
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|संग्रह=
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<poem>
इसकी जड़ें ज़मीन में जाती हैं
ढूँढती हैं दूसरी वनस्पतियों की जड़ें
दूसरो की जड़ो पर जमाती हैं अपनी शिराएँ
लेती हैं अन्न जल दूसरे के हिस्से का
इस तरह बढ़ता है पराश्रयी !
पराश्रयी फैला लेता है अपनी शाखाएँ
अपनी भुजाओं में शक्ति भर झूमता है
सूख जाता है वह पेड़
जिससे इसने
अन्न जल लिया था !
उसकी मृत्यु पर मनाता है जश्न पराश्रयी
हवाओं से खेलता
मद से भरा।
</poem>