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पटकथा / पृष्ठ 3 / धूमिल

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किसी झनझनाते चाकू की तरह
खुलकर,कड़ा हो गया…
अचानक अपने-आपमें जिन्दा ज़िन्दा होने की
यह घटना
इस देश की परम्परा की -
दरअस्ल,यह पुट्ठों तक चोट खायी हुई
गाय की घृणा थी
(जिंदा ज़िन्दा रहने की पुरर पुर ज़ोर कोशिश)
जो उस आदमखोर की हवस से
बड़ी थी।
भूखों मर रहे थे
मैंने महसूस किया कि मैं वक्त के
एक शर्मनाक दौर से गुजर गुज़र रहा हूँ
अब ऐसा वक्त आ गया है जब कोई
किसी का झुलसा हुआ चेहरा नहीं देखता है
देखता है, न थरथराती हुई टाँगें
और न ढला हुआ ‘सूर्यहीन कन्धा’ देखता है
हर आदमी,सिर्फ, अपना धन्धा देखता है
सबने भाईचारा भुला दिया है
आत्मा की सरलता को भुलाकर
उसकी पीठ में छुरा भोंक देता है
ठीक उस मोची की तरह जो चौक से
गुजरते गुज़रते हुये देहाती को
प्यार से बुलाता है और मरम्मत के नाम पर
रबर के तल्ले में
वे ऐसी भाषा बोलते हैं जिसे सुनकर
नागरिकता की गोधूलि में
घर लौटते मुशाफिर मुसाफिर अपना रास्ता भटक जाते हैं।उन्होंने किसी चीज चीज़ को
सही जगह नहीं रहने दिया
न संज्ञा
शिराओं में छिपे हुये कारकों का
हत्यारा है
उनकी सख्त सख़्त पकड़ के नीचे
भूख से मरा हुआ आदमी
इस मौसम का
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