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{{KKRachna
|रचनाकार=रश्मि विभा त्रिपाठी
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<poem>
1
मुट्ठी से सरक रहे
रेत सरीखे अब
रिश्ते यों दरक रहे।
2
'''आँसू की धार बही'''
हमको रिश्तों की
जब भी दरकार रही।
3
फिर नींद नहीं आई
हमने जब जानी
रिश्तों की सच्चाई।
4
बनकर तेरे अपने
लोग दिखाएँगे
केवल झूठे सपने।
5
किसका मन पिघल रहा?
इंसाँ ही अब तो
इंसाँ को निगल रहा!
6
जग से कुछ ना कहना
जग है सौदाई
चुपके हर गम सहना।
7
देखा तुमने मुड़के
जाते वक्त हमें
हम जाने क्यों हुड़के।
8
दो दिन का मेला है
जीवन बेशक पर
हर वक्त झमेला है।
9
घबराता अब दिल है
रिश्ते- नातों से
हमको यह हासिल है।

</poem>