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18:28, 9 नवम्बर 2024 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=नजवान दरविश
|अनुवादक=मंगलेश डबराल
|संग्रह=
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<poem>
एक बार मैंने उम्मीद की एक ख़ाली कुर्सी पर
बैठने की कोशिश की ।
लेकिन वहाँ पसरा हुआ था एक लकडबग्घे की मानिन्द
‘आरक्षित’ नाम का शब्द ।
(मैं उस पर नहीं बैठा; कोई भी नहीं बैठ पाया)
उम्मीद की कुर्सियाँ हमेशा ही होती हैं आरक्षित ।
'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : मंगलेश डबराल'''
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