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12:34, 21 नवम्बर 2024 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=सुशांत सुप्रिय
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|संग्रह=
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<poem>
एक सुबह उठता हूँ
और हर कोण से
खुद को पाता हूँ अजनबी
आँखों में पाता हूँ
एक अजीब परायापन
अपनी मुस्कान
लगती है न जाने किसकी
बाल हैं कि
पहचाने नहीं जाते
अपनी हथेलियों में
किसी और की रेखाएँ पाता हूँ
मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि
ऐसा भी होता है
हम जी रहे होते हैं
किसी और का जीवन
हमारे भीतर
कोई और जी रहा होता है
</poem>